Sunday, November 24, 2024
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Caste Census: जाति जनगणना क्यों ज़रूरी है? किस बात से डरती हैं केंद्र सरकार? .. समझें पूरा गणित

Caste Census: जाति जनगणना कराने के लिए बिहार सरकार द्वारा एलान के बाद अब केंद्र पर भी दबाव बनने लगा है, हालांकि केंद्र सरकार इसके पक्ष में नहीं है. यानी अब तक 1931 वाली जनगणना के आधार पर ही देश में जनता की हर तरह से गिनती की जाती है.

हमारे देश में अलग-अलग तरह की तमाम जातियां और उनकी उपजातियां हैंहालांकि इनकी संख्या कितनी हैंकिस जाति में कितने लोग हैंइनकी आर्थिक स्थिति क्या हैये फिलहाल निर्धारित नहीं है. साल 1931 से लेकर आज भी यही मुद्दा हमारे देश में विकास की ओर एक रोड़ा बना हुआ है. जिसमें सबसे ज्यादा विवाद पिछड़ा वर्ग को लेकर है.

इसी वर्ग की संख्या को पुख्ता करने के लिए अलग अलग राज्यकेंद्र पर दबाव बनाते हैंक्योंकि राजनीतिक पार्टियां अपने पक्ष में वोट की गोलबंदी करने के लिए जातिगत पहचान का सहारा सबसे अधिक लेती हैंइसके अलावा सभी जातियों के उत्थान और उनके वाजिब हक़ के लिए भी यह ज़रूरी होता है. लेकिन केंद्र की सत्ता में रहने वाली पार्टी कुछ-न-कुछ बहाना बनाकर हर बार इसे टाल जाती है.

बिहार सरकार ने राज्य में

Caste Census: जातीय जनगणना को लेकर सबसे ज्यादा सरगर्मी बिहार और उत्तर प्रदेश में रहती है. नारा भी बुलंद रहता है कि ‘जिसकी जितनी संख्या भारीउसकी उतनी हिस्सेदारी. इस समय उत्तर प्रदेश में भाजपा की ही सरकार है तो वहां केंद्र से अलग जाकर यह मांग उठने का कोई सवाल ही नहीं हैलेकिन बिहार सरकार ने राज्य में जातीय जनगणना कराने का फैसला कर लिया है. और इसकी शुरुआत भी हो चुकी है.

पहले सर्वदलीय बैठक और फिर कैबिनेट की मीटिंग में सबकुछ तय करने के बाद यह ऐलान कर दिया गया है कि बिहारकर्नाटक मॉडल की तर्ज पर सूबे में जातीय गणना को अंजाम देगा. इस महाअभियान पर सरकारी खजाने से 500 करोड़ रुपये खर्च किये जायेंगे जो 9 महीने के भीतर सूबे की 14 करोड़ की आबादी की जातिउपजातिधर्म और संप्रदाय के साथ ही उसकी आर्थिक सामाजिक स्थिति का भी आकलन करेगा.

जनगणना क्या है?

भारत में हर 10 साल में एक बार जनगणना की जाती है. इससे सरकार को विकास योजनाएं तैयार करने में मदद मिलती है. किस तबके को कितनी हिस्सेदारी मिलीकौन हिस्सेदारी से वंचित रहाइन सब बातों का पता चलता है. कई नेताओं की मांग है कि जब देश में जनगणना की जाए तो इस दौरान लोगों से उनकी जाति भी पूछी जाए. इससे हमें देश की आबादी के बारे में तो पता चलेगा हीसाथ ही इस बात की जानकारी भी मिलेगी कि देश में कौन सी जाति के कितने लोग रहते है. सीधे शब्दों में कहे तो जाति के आधार पर लोगों की गणना करना ही जातीय जनगणना होता है.

गणना में रोड़ा कौन?

साल 2010 में जब भाजपा सत्ता में नहीं थी. संसद के भीतर भाजपा के दिवंगत नेता गोपीनाथ मुंडे जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर तर्क दे रहे थे. कह रहे थे कि अगर ओबीसी जातियों की गिनती नहीं हुई तो उनको न्याय देने में और 10 साल लग जाएंगे. इसके बाद जब भाजपा सत्ता में आईऔर तय समय के अनुसार 10 साल बाद 2021 में जनगणना होनी थीलेकिन नहीं हुई.

तब इसी साल ससंद में भाजपा से एक सवाल किया गया कि 2021 की जनगणना जातियों के हिसाब से होगी या नहींनहीं होगी तो क्यों नहीं होगी. सरकार का लिखित जवाब आया. कहा कि सिर्फ एससीएसटी को ही गिना जाएगा. यानी ओबीसी जातियों को गिनने का कोई प्लान नहीं है. कहने का मतलब ये है कि केंद्र की सत्ता में जो भी पार्टी होती हैवो जातीय जनगणना को लेकर आनाकानी करती ही है. विपक्ष में जब ये पार्टियां होती हैं तो जातिगत जनगणना को मुद्दा बनाती हैं.

1931 में हुई थी जातिगत जनगणना 

Caste Census: भारत में आख़िरी बार ब्रिटिश शासन के दौरान जाति के आधार पर 1931 में जनगणना हुई थी. इसके बाद 1941 में भी जनगणना हुई लेकिन आंकड़े पेश नहीं किए गए. इसके बाद अगली जनगणना से पहले देश आज़ाद हो चुका था. यानी अब ये जनगणना 1951 में हुईलेकिन इस जनगणना में सिर्फ अनुसूचित जातियों और जनजातियों को ही गिना गया.

कहने का मतलब ये है कि 1951 में अंग्रेजों की जनगणना नीति में बदलाव कर दिया गया जो कमोबेश अभी तक चल रहा है. इस जनगणना से पहले साल 1950 में संविधान लागू होते ही एससी और एसटी के लिए आरक्षण शुरू कर दिया थाकुछ साल बीते और पिछड़ा वर्ग की तरफ से भी आरक्षण की मांग उठने लगी.

आरक्षण के मामले में पिछड़ा वर्ग की परिभाषा कैसी होइस वर्ग का उत्थान कैसे होइसके लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1953 में काका कालेलकर आयोग बनाया. काका कालेलकर आयोग ने 1931 की जनगणना को आधार मानकर पिछड़े वर्ग का हिसाब लगाया. हालांकि काका कालेलकर आयोग के सदस्यों में इस बात को लेकर बहस थीकि गणना जाति के आधार पर हो या आर्थिक आधार परयानी ये आयोग इतिहास में महज़ एक काग़ज़ भरने तक ही सीमित रह गया.

अब साल था 1978, और देश में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी वाली सरकार थी. इस सरकार ने बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक पिछड़ा आयोग बनाया. लेकिन साल 1980 के दिसंबर तक जब मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट दी तब तक जनता पार्टी की सरकार जा चुकी थी. मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर ही ज्यादा पिछड़ी जातियों की पहचान की.

मंडल आयोग की तरफ से ये भी कहा गया कि

Caste Census: कुल आबादी में 52 फीसदी हिस्सेदारी पिछड़े वर्ग की मानी गई. मंडल आयोग की तरफ से ये भी कहा गया कि पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थानों में 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए. हालांकि मंडल आयोग की सिफारिशों पर अगले 9 सालों तक कोई ध्यान नहीं दिया गया. लेकिन साल 1990 में वीपी सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की उस सिफारिश को लागू कर दिया जिसमें पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण की मांग की गई थी. वीपी सिंह के इस फैसले के बाद बवाल हुआमामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया.

जिसके बाद बारी थी 1992 में दिए गए इंद्रा साहनी के ऐतिहासिक फैसले की… जिसमें आरक्षण को सही माना गया लेकिन अधिकतम लिमिट 50 फीसदी तय कर दी गई. अब साल था 2006… केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अंर्जुन सिंह ने मंडल पार्ट 2 शुरू कर कियाऔर इस मंडल आयोग की एक दूसरी सिफारिश को लागू कर दिया गया जिसमें सरकारी नौकरियों की तरह सरकारी शिक्षण संस्थानोंजैसे यूनिवर्सिटी, आईआईटी, आईआईएम मेडिकल कॉलेज में भी पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिए जाने पर मुहर लग गई. इस बार भी विवाद हुआ लेकिन सरकार अड़ी रही और ये लागू हो गया.

अब साल था 2010… कांग्रेस की सरकार थी और देश में जाति आधारित जनगणना की मांग उठने लगी. लालू प्रसाद यादवशरद पवारमुलायम सिंह यादवगोपी नाथ मुंडे जैसे नेताओं ने खूब ज़ोर लगाकर इसकी मांग उठाईहालांकि कांग्रेस इसके पक्ष में नहीं थी. साल 2011 के मार्च महीने में तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने जातीय जनगणना पर अपनी बात रखी और ये हवाला दिया कि जो लोग इस जनगणना में काम करते हैंउनके पास इस तरह की ट्रेनिंग या अनुभव नहीं है. हालांकि लालू जैसे अपने सहयोगियों के दबाव में आकर कांग्रेस को जातीय गणना पर विचार करना पड़ा.

इस गणना का नाम दिया गया

Caste Census: प्रणव मुखर्जी की अगुआई में एक कमेटी बनीइसमें जनगणना के पक्ष में सुझाव दिए गए. इस जनगणना का नाम दिया गया सोशियो यानी इकॉनॉमिक एंड कास्ट सेन्सिस. सोशियो को पूरा करने में कांग्रेस ने 4800 करोड़ रुपये खर्च कर दिए. ज़िलावार पिछड़ी जातियों को गिना गया और इसका डाटा सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय को दिया गया. जिसके कई साल बाद तक इस डेटा पर कोई बात नहीं हुई. जब सरकार बदली तब थोड़ी बहुत सुगबुगाहट ज़रूर हुई और जातीय जनगणना के डेटा के क्लासिफिकेशन के लिए एक एक्सपर्ट ग्रुप बनाया गया. इस ग्रुप ने रिपोर्ट दी या नहींइसकी जानकारी अब तक नहीं आई है. कुल मिलाकर मोदी सरकार ने भी जाति के आंकड़ों को जारी करना मुनासिब नहीं समझा.

जातिगत गणना से क्यों डरती है केंद्र सरकार?

मान लीजिए जातिगत जनगणना होती है तो अब तक की जानकारी में जो आंकड़े हैंवो ऊपर नीचे होने की पूरी संभावना है. जैसे ओबीसी की आबादी 52 प्रतिशत से घट जाती है तो एक नया विवाद हो सकता हैऔर मान लीजिए यह प्रतिशत बढ़ जाता हैजिसकी पूरी संभावना है तो सत्ता और संसाधन में हिस्सेदारी की और मांग उठेगी सरकारें शायद इस बात से डरती हैं.

चूंकि आदिवासियों और दलितों के आकलन में फ़ेरबदल होगा नहींक्योंकि वो हर जनगणना में गिने जाते ही हैंऐसे में जातिगत जनगणना में प्रतिशत में बढ़ने घटने की गुंज़ाइश अपर कास्ट और ओबीसी के लिए ही है. भाजपा की पैठ अभी सवर्ण जातियों में ज्यादा है. आरक्षण का दायरा बढ़ने पर सवर्ण जातियां विरोध करेंगी और सरकार की परेशानी बढ़ेगी.

क्षेत्रीय पार्टियां क्या कहती हैं?

Caste Census: क्षेत्रीय पार्टियों में समाजवादी पार्टीराष्ट्रीय जनता दल और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी समेत दर्जन भर से ज्यादा पार्टियों की मांग है कि बीजेपी ओबीसी की सही तादाद बताए और उसके बाद आरक्षण की 50 फ़ीसदी की सीमा को बढ़ाए. जानकार कहते हैं कि सही जनगणना होने से कोई नुक़सान नहीं होगा बल्कि तमाम जातियों के बारे में और उनकी स्थिति के बारे में पता चलेगाऔर उन्हें उनका आरक्षणसमाज में स्थानऔर अन्य संसाधनों में पूरा हक़ मिल सकेगा.

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