Caste Census: जुलाई 2022 में केंद्र सरकार ने संसद में बताया कि 2011 में की गई सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना में हासिल किए जातिगत आंकड़ों को जारी करने की कोई योजना नहीं है. इसके कुछ ही महीने पहले साल 2021 में एक अन्य मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में दायर एक शपथ पत्र में केंद्र ने कहा था कि ‘साल 2011 में जो सामाजिक आर्थिक और जातिगत जनगणना करवाई गई, उसमें कई कमियां थीं. इसमें जो आंकड़े हासिल हुए थे वे ग़लतियों से भरे और अनुपयोगी थे.
भारत में 1931 में हुई पहली जनगणना
केंद्र का कहना था कि जहां भारत में 1931 में हुई पहली जनगणना में देश में कुल जातियों की संख्या 4,147 थी वहीं 2011 में हुई जाति जनगणना के बाद देश में जो कुल जातियों की संख्या निकली वो 46 लाख से भी ज़्यादा थी. 2011 में की गई जातिगत जनगणना में मिले आंकड़ों में से महाराष्ट्र की मिसाल देते हुए केंद्र ने कहा कि जहां महाराष्ट्र में आधिकारिक तौर पर अधिसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी में आने वाली जातियों कि संख्या 494 थी, वहीं 2011 में हुई जातिगत जनगणना में इस राज्य में कुल जातियों की संख्या 4,28,677 पाई गई.
साथ ही केंद्र सरकार का कहना था कि जातिगत जनगणना करवाना प्रशासनिक रूप से कठिन है. प्रोफ़ेसर सतीश देशपांडे दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाते हैं और एक जाने माने समाजशास्त्री हैं.
सतीश देशपांडे बताते हैं
“राष्ट्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना तो देर सवेर होनी ही है, लेकिन सवाल ये है कि इसे कब तक रोका जा सकता है. राज्य कई तरह की अपेक्षाओं के साथ ये जातिगत जनगणना कर रहे हैं. कभी-कभी जब उनकी राजनीतिक अपेक्षाएं सही नहीं उतरती हैं, तो कई बार इस तरह की जनगणना से मिले आंकड़ों को सार्वजानिक नहीं किया जाता है.
कर्नाटक में की गई जातिगत जनगणना का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं
“ये जातिगत जनगणना काफी शिद्दत से की गई. तकनीकी तौर पर ये अच्छी जनगणना थी. लेकिन उसके आंकड़े अभी तक सार्वजानिक नहीं हुए हैं. ये मामला राजनीतिक दांव-पेंच में अटक गया. किसी गुट को लगता है उसे फ़ायदा होगा और किसी अन्य गुट को लगता है कि उनका नुक़सान हो जाएगा.
इलाहाबाद स्थित गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान में कार्यरत प्रोफ़ेसर बद्रीनारायण कहते हैं
“जो पार्टियां जातिगत जनगणना करके भी उसके आंकड़े सामने नहीं लाती हैं, तो उसकी वजह या तो कोई भय होगा या आंकड़ों में रहा कोई अधूरापन होगा. बहुत सारी जातियों ने जो सोशल मोबिलिटी ने हासिल की है, उनकी श्रेणियों को निर्धारित करना इतना आसान भी नहीं है. बहुत सारे विवादों से बचने के लिए भी शायद आंकड़े सामने नहीं लाये जाते होंगे.
प्रोफ़ेसर देशपांडे के मुताबिक़
Caste Census: ये कहना मुश्किल है कि आगे क्या होगा “लेकिन जातिगत जनगणना की मांग एक जायज़ मांग है और इस पर अमल किया जाना चाहिए. वे कहते हैं, “जातिगत जनगणना करवाने में जो तकनीकी अवरोध बताये जाते हैं वो सिर्फ़ अटकलबाज़ी है. जटिल चीज़ों की गणना हमारे सेन्सस के लिए कोई नई बात नहीं है. तकनीकी तौर पर ये पूरी तरह से संभव है. साल 2001 में सेन्सस कमिश्नर रहे डॉक्टर विजयानून्नी ने बड़े साफ़ तौर पर कहा है कि जो जनगणना करने का तंत्र है वो इस तरह की जनगणना करने में सक्षम है.