Caste Census: बिहार में जातिगत जनगणना कराने का फ़ैसला पिछले साल जून में हुआ था. इसके बाद इस साल 7 जनवरी को बिहार सरकार ने राज्य में जातिगत जनगणना करवाने की प्रक्रिया की शुरुआत कर दी. दो चरणों में की जा रही इस प्रक्रिया का पहला चरण 31 मई तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है. इसके दूसरे चरण में बिहार में रहने वाले लोगों की जाति, उप-जाति और सामाजिक-आर्थिक स्थिति से जुड़ी जानकारियां जुटाई जाएँगी.
लेकिन बिहार में की जा रही जातिगत जनगणना को चुनौती देती हुई एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई है जिसके ऊपर पहली सुनवाई 20 जनवरी को मुक़र्रर की गई है. इस जनहित याचिका में बिहार में की जा रही जातिगत जनगणना को रद्द करने की मांग की गई है.
याचिकाकर्ता का कहना है कि बिहार में की जा रही जातिगत जनगणना संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन है क्योंकि जनगणना का विषय संविधान की सातवीं अनुसूची की पहली सूची में आता है और इसलिए इस तरह की जनगणना को कराने का अधिकार केवल केंद्र सरकार को है.
जातिगत जनगणना का इतिहास
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान जनगणना करने की शुरुआत साल 1872 में की गई थी. अंग्रेज़ों ने साल 1931 तक जितनी बार भी भारत की जनगणना कराई, उसमें जाति से जुड़ी जानकारी को भी दर्ज़ किया गया. आज़ादी हासिल करने के बाद भारत ने जब साल 1951 में पहली बार जनगणना की, तो केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े लोगों को जाति के नाम पर वर्गीकृत किया गया.
तब से लेकर भारत सरकार ने एक नीतिगत फैसले के तहत जातिगत जनगणना से परहेज़ किया और सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मसले से जुड़े मामलों में दोहराया कि क़ानून के हिसाब से जातिगत जनगणना नहीं की जा सकती, क्योंकि संविधान जनसंख्या को मानता है, जाति या धर्म को नहीं.
मंडल कमीशन का गठन
हालात तब बदले जब 1980 के दशक में कई क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय हुआ जिनकी राजनीति जाति पर आधारित थी. इन दलों ने राजनीति में तथाकथित ऊंची जातियों के वर्चस्व को चुनौती देने के साथ-साथ तथाकथित निचली जातियों को सरकारी शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में आरक्षण दिए जाने को लेकर अभियान शुरू किया. साल 1979 में भारत सरकार ने सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के मसले पर मंडल कमीशन का गठन किया था.
मंडल कमीशन ने ओबीसी श्रेणी के लोगों को आरक्षण देने की सिफ़ारिश
मंडल कमीशन ने ओबीसी श्रेणी के लोगों को आरक्षण देने की सिफ़ारिश की. लेकिन इस सिफ़ारिश को 1990 में ही जाकर लागू किया जा सका. इसके बाद देश भर में सामान्य श्रेणी के छात्रों ने उग्र विरोध प्रदर्शन किए. चूंकि जातिगत जनगणना का मामला आरक्षण से जुड़ चुका था, इसलिए समय-समय पर राजनीतिक दल इसकी मांग उठाने लग गए. आख़िरकार साल 2010 में जब एक बड़ी संख्या में सांसदों ने जातिगत जनगणना की मांग की, तो तत्कालीन कांग्रेस सरकार को इसके लिए राज़ी होना पड़ा.
Caste Census: 2011 में सामाजिक आर्थिक जातिगत जनगणना करवाई तो गई, लेकिन इस प्रक्रिया में हासिल किए गए जाति से जुड़े आंकड़े कभी सार्वजानिक नहीं किए गए. इसी तरह साल 2015 में कर्नाटक में जातिगत जनगणना करवाई गई. लेकिन इसमें हासिल किए गए आंकड़े भी कभी सार्वजानिक नहीं किए गए.